राम प्रताप वर्मा की कविताएं

१) इच्छाएं

इच्छाएं अनंत हैं,
एक पूरी होती हैं तो,
दूसरी जन्म लेती हैं
यह सिलसिला चलता रहता है,
जीवन भर, जो हमें प्रेरित करती हैं,
सब कुछ पा लेने को
इसी पा लेनी की मृगमरीचिका के पीछे,
हम दौड़ते रहते हैं,
कभी अपने लिए, कभी अपने बच्चों के लिए,
और कभी अपने बच्चों के बच्चों के लिए
और एक दिन
हम, चले जाते हैं,
हमेशा-हमेशा के लिए,
इस मृत्यु लोक से
कुछ पूरी, कुछ अधूरी इच्छाओं के साथ
सच तो क्या यही इच्छाएं ही जीवन हैं
जीवन जीना और चलना
भागम-भाग के साथ
लेकिन क्या हम कभी विश्राम कर,
सोंचते हैं कि यह इच्छाएं ही हमें,
थका देती हैं, हम हाँफ – हाँफ कर,
एक दिन औंधे मुँह गिर कर,
तोड़ देते हैं दम

आखिर, हम जीवन में,
इच्छाओं के उत्पन्न होने और,
उसकी प्राप्ति होने के बीच ,
कभी यह सामंजस्य क्यों नहीं,
बना पाते कि अब हमारी कोई,
इच्छाएं शेष नहीं हैं
क्या आखिर हमारे जीवन का,
अंतिम दिन, वही होगा
जब ना रहेंगे हम और,
ना रहेंगी हमारी इच्छाएं


२) उठना होगा, एकजुट होकर

उठना होगा, एकजुट होकर
बनाना होगा, बांध
तभी होगा सुरक्षित हमारा घर, हमारा मान हमारा सम्मान
बदलना होगा रुख, उस विनाशकारी नदी का
जो बहाने को आतुर है, हमारी बस्ती
जो हमारा सदियों से करती आयी है,
नाश विनाश
जिसकी हम करते हैं पूजा, चढाते हैं फूल
समय से पहले, बनानी होगी योजना
समझना होगा उसके विनाशकारी स्वरूप को
समझना होगा रूढ़ियों, परम्पराओं और मान्यताओं को
जो हमारे लिए हो रही है सिद्ध – आत्मघाती
जहां आज भी फंसे हैं हम
परखना होगा विज्ञान और तर्क की कसौटी पर
गढना होगा एक नया मानदंड
तभी होगा उजियारा हमारे जीवन में
जलाना होगा ज्ञान का दीप,
बजाना होगा घंटा हमें ,
विद्यालयों और विश्व विद्यालयों का
तभी छंटेगा तम्, खिलेगा नव प्रभात
उठना होगा, एकजुट होकर ।
बनाना होगा बांध
तभी होगा सुरक्षित
हमारा घर, हमारा मान, हमारा सम्मान


३) प्रतिकार ज़रूरी है

जब हमको कोई, बेवजह सताये
अधिकार पूर्ति में व्यवधान पहुंचाये,
स्वार्थ में आकर भ्रमित कर,
आपस में लड़ाये, कुमार्ग बताये
बार-बार आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाये
बात -बात पर धमकाये, डरवाये
जब मान सम्मान से जिन्दा रहना,
मुश्किल, बहुत मुश्किल हो जाये
मौलिक अधिकारों से जब कोई,
वंचित करता जाये
आये दिन जब कोई हमारे,
मन को दुःख पहुंचाये
तो
संविधान के साये में इंसाफ ज़रूरी है
सुनो साथियों तब निश्चित प्रतिकार ज़रूरी है


४) सफाई करना जरूरी है

सफाई करना; जरूरी है,
उस घर की,
जिसमें हम रहते हैं,
मकड़ी के जाले,
और जमीं हुई धूल,
झाडू से करना है साफ,
फिर करनी है; धुलाई और पुताई,
भरना है सुन्दर-सुन्दर रंग,
लाल, हरे, नीले, पीले और आसमानी। ।
सफाई करना; जरूरी है,
मन-मंदिर की,
जहां चढ़ जाती है,
ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट,
और प्रपंच की गंदी मोटी परत,
लगाना है; समय-समय पर,
सद् विचारों के झाडू,
करना है आचमन,
वेद, कुरान, और बाइबिल के,
अमृत वाणी से,
जिससे हो सके, मन मंदिर की पुताई,
और निखरे जीवन में रंग,
प्रेम, बन्धुत्व और सौहार्द के,
जिससे बिखरे मानवता,
सम्पूर्ण संसार में।


५) सूरत और सीरत

देखा आज दर्पण में,
अपना सुन्दर सा चेहरा
साफ सुथरे दाँत!
करीने से कंघी किये बाल
जादुई आँखे जो बरबस ,
खींच लेती हैं , सबको अपनी ओर
मिश्री की मिठास सी बोल
बोलता हूँ बार-बार
पर देख नहीं पाया दर्पण में,
स्व मन के भाव जो ,
भरा पड़ा है
ईर्ष्या, द्वेष, लोभ और वैमनस्य से
जिसके कारण लोग मुझसे,
रहते हैं पास होकर भी दूर-दूर
पर आज समझ आ गया है मुझे
कि यदि होना है हृदयस्थ,
लोगों के उर में तो
सूरत के साथ सीरत में भी,
करना पड़ेगा सुधार
अन्यथा होते रहेंगे दो चार


६) संवाद होना चाहिए

बिखरते परिवार, बिगड़ते रिश्तों और दिलों की बढ़ती दूरियों को,
फिर सँजोने के लिए बात होना चाहिए, कुछ बात होना चाहिए।
संवाद होना चाहिए, संवाद होना चाहिए।
सीमाओं पर फड़कती भुजाएं, अंगारे बरसाती आँखे, तोप गरजे, गोले बरसे,
प्रधान सेवक को समस्या हल करना चाहिए, बात होना चाहिए, कुछ बात होना चाहिए।
संवाद होना चाहिए, संवाद होना चाहिए।
मानवता घायल हुई, स्वार्थ का व्यवहार है, हर तरफ हर आदमी अपने में परेशान है,
इस परेशानी से उबरना है तो, साफ सुथरे मन से बात होना चाहिए, कुछ बात होना चाहिए।
संवाद होना चाहिए, संवाद होना चाहिए।
जीवन में संघर्ष है, जीत है, हार है, अपनों-परायों में, वाद-विवाद है,
इस वाद-विवाद में, सरपंच संग बैठक कर, बात होना चाहिए, कुछ बात होना चाहिए।
संवाद होना चाहिए, संवाद होना चाहिए।


७) हम आत्मनिर्भर हैं

हम अपने बच्चों को बांधकर अपनी पीठ पर,
खोद- माड़ कर मिट्टी बनाते हैं ईट!
जिससे बनती हैआपकी बहुमंजिला इमारतें,
हम ही पैदा करते हैं बहाकर शोणित और स्वेद,
वो अनाज, दालें और सब्जियां जिसे,
हम ही पकाकर रखते हैं आपके दस्तरखान पर!
तब आप सपरिवार, खाते हैं सोने के चम्मच से!
मेरे बनाये घर की आलीशान लाबी में,
हम आज जा रहें हैं आपके शहर से अपने गांव!
दो हजार किलोमीटर की दूरी चलने का हौसला लेकर,
हाँ ! बस कह दो अपने पुलिस वालों से,
हम पर ना बरसायें डंडे और ना चलवायें उकडू!
हम आत्मनिर्भर हैं!हम चले जायेंगे अपने गांव,
नहीं चाहिए तुम्हारी ट्रेन और बसें!
बस! हमें रोको ना! जाने दो!
हमने बनायीं हैं बीस माले की इमारतें!
चिलचिलाती गर्मी में झोंके हैं भट्टों में कोयले!
होटलों के किचेन में लगाये हैं तन्दूर!
हम दावे के साथ कहते हैं कि,
हम आत्मनिर्भर हैं! आत्मनिर्भर हैं! आत्मनिर्भर हैं!


८) लौटकर ना आऊँगा

जा रहा हूँ, तेरे शहर से हमेशा के लिए!
जहाँ से फिर कभी लौटकर ना आऊँगा!
जा रहा हूँ, उसी गाँव की गलियों में,
जहाँ गुजरा बचपन, खेले कंचे और गिल्ली डंडे!
वह बिसुही नदी जिसमें बहता था, साफ सुथरा नीर!
जिसको हम पीते थे बेझिझक!
और नहलाते थे अपनी भैसों को ,
मल – मल कर साफ करते उनका शरीर!
पूँछ पकड़ कर उनकी सीखते थे तैरना!
देखते ही देखते चढ़ जाते, उनकी पीठ पर!
आता था बड़ा मजा,जब हमारी भैंस मुँह से लगाती डुबकी!
शाम को लौटते घर गाँव के सभी साथी!
अपने पशुओं के संग, होती थी फिक्र पढ़ाई की!
जलती थी ढिबरी, फेंकता था काला धुआँ!
क्योंकि एक लालटेन से बाबा करते थे जानवरों की देख-भाल!
बाल्टी का खनकना,#पडरू का रस्सी खोलना ही काफी था!
भैंस का तैयार होना, दूध देने के लिए!
खिल उठती थीं हमारी बांछे कि,
पीने को मिलेगा एक कटोरा गुनगुना मीठा दूध!
याद आता है गर्मियों के वह दिन,
जब आम के बगीचे में सभी साथी दौड़ते थे,
पकनारी, उठाने के लिए एक साथ!
झूलते थे झूला, जोर से मारते थे पिंग,
पसीने से भींगा शरीर, हवा के झोंके से,
हो जाता तर,मानो पहुंच गए वातानुकूलित कमरे में!
क्या कहने! जब शादियों के मौसम में होती थी नौटंकी!
इकट्ठे किये जाते थे, दस – बारह तख़्ते!
गाँव के खेतों में, बहनों की शादी पर,
खेले जाते थे नाटक, राजा हरिश्चंद्र!
जिसमें सत्य की परीक्षा के लिए,
राज – पाट, पत्नी और बच्चे सबका!
कर देते थे न्यौछावर लेकिन,
अंत में सब हो जाता था वापस!
ऐसे ही हम भी जाते हैं वापस,
अपने उसी गाँव की गलियों में!
जहाँ मिल जायेंगी वापस,
हमारी यादें, हमारे अपने,
और शुरू करेंगे कोई नया काम जिससे,
पूरे होंगे हमारे सपने!
वह सपने, जो बिखर गये इस शहर में,
रात-दिन खटकर भी ना हो सके पूरे!
जा रहा हूँ तेरे शहर से हमेशा के लिए!
जहाँ से फिर कभी लौटकर ना आऊँगा!

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पडरू-भैंस का बच्चा
पकनारी -आम के पेड़ो से पक कर गिरे फल


९) ले संकल्प

छोड़ दुविधा, सम्मुख रख विकल्प!
ले संकल्प! ले संकल्प! ले संकल्प!
धनुष उठा,तीर रख, खींच प्रत्यंचा!
लगा निशाना, भेद लक्ष्य, एक बार नहीं,
बार-बार!जब तक मिल ना जाये सफलता!
कुंठा, नैराश्य, हताशा को फूंक से फेंक!
लगन, उत्साह,जोश की टोकरी रख सिर पर!
देख लक्ष्य नयन, लगा निशाना, मिले सिद्धि!
देखे जग सारा, अनुपम कार्य तुम्हारा!
लगा निशाना, भेद लक्ष्य!एक बार नहीं,
बार-बार! जब तक मिल ना जाये सफलता!
छोड़ दुविधा! रख सम्मुख विकल्प!
ले संकल्प! ले संकल्प! ले संकल्प!


१०) पांच साल में ही

वे घूमते थे गांव- गांव!
पहन कर फटे कुर्ते,
करते रहते थे जनसेवा,
सुबह करते थे नाश्ता,
और शाम का भोजन,
किसी किसान के घर,
जो बहाता पसीना,
अपने खेतों पर,
आज जनता ने बना दिया,
उन्हें विधायक, और!
ले ली, उन्होंने शपथ,
और पांच साल में ही आ गये!
कई वाहन, जिला मुख्यालय से लेकर,
राजधानी तक बन गए,
आलीशान पक्के मकान,
और खुल गये कई डिग्री कालेज!
आ गये कई असलहे और,
बस-ट्रक, सैकड़ों बीघे जमीन!
ताऊम्र खटता रहा किसान!
सालों तक फूस का झोपड़ा,
ना बन सका, पक्का मकान!
आखिर कैसी है यह जनसेवा!
कि पांच साल में ही,
पीढ़ियों का दरिदर हो !
जाता है छू मंतर ,
जहाँ मिलती है, इतनी जल्दी,
इतनी सारी मेवा.


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SWARACHIT1118लौटकर ना आऊँगा!
SWARACHIT1937पांच साल में ही
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