एक ग़ज़ल हो तुम जैसी

एक ग़ज़ल हो तुम जैसी

जब जब हरीम-ए-दिल को तन्हा पाते
वो मिल जाते आते जाते

अबरू-ए-ख़मीदा, निगह-ए-मस्त, सर्व-क़ामत
बयाँ ख़िज़्र-ए-हुस्न को हम जो कर नहीं पाते

दूर से ही हो जाता सलाम दुआ
काश! हम उनको कभी अपना कह पाते

नहीं कोई अब आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर
एक ग़ज़ल हो सिर्फ, जिस में वो उतर आते

सीने पे रख के ‘रज़ा’ उस ग़ज़ल को
अपना तो हम उनको कह पाते

~ रज़ा इलाही

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हरीम-ए-दिल = boundary of heart;
अबरू-ए-ख़मीदा = arched eyebrows;
निगह-ए-मस्त = intoxicated glance;
सर्व-क़ामत = tall and graceful;
ख़िज़्र-ए-हुस्न = immortal beauty; prophet of beauty;
आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर = desire for spring of Kausar, a river in paradise

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