पाठशाला की किरना

पाठशाला की किरना

खेम चन्द अपने स्कूल के दिनों और सहपाठियों को याद करते हुए यह कविता लिखी है। हम सभी के जीवन में विद्यालय की ढेर सारी यादें हैं जो किसी भी पल चेहरे पर मुस्कान बिखर देती हैं, यकीं न हो तो अपने शिक्षक और दोस्तों का स्मरण कर लीजिये।

बचपन का दौर बचपन के वो खिलौने
स्वप्न देखकर बीज़ खुशी के लगे घर-आंगन में बोने।
पहली वर्णमाला साथ सिखी और साथ एक पाठशाला में पढ़े
न जाने बचपन में कितनी बार होंगे हम आपस में लड़े।
होनहार लड़की माता-पिता का आपार प्रेम-दुलार
प्रथम आती कक्षा में थी किरना हर बार
कभी तख़्ती पर कलम वो काठ सजाई
कभी लेखनी से वर्णमाला मंत्रमुग्ध बनाई।
एक दवात दो तख्तियाँ तीन-चार होते थे कलम हमारे
दोपहर कि छुट्टी बंद होने के बाद
तख़्ती लिखने में जुट जाते थे बच्चे नादान हम सारे।
खड्ड किनारे तख़्ती धोना कभी बहाना बनाकर घर को फूर्र होना
बचपन था बीज चाहते थे इज्ज़त का बोना।
स्कूल खेल मैदान में सुबह के वक्त का एक-दूसरे को छुना
खेल -खेल में माटी का बना लेते थे हम सभी धुना।
मासूमियत झलकती थी चेहरे से न्यारी
कक्षा में किरना लगती थी सबको प्यारी।
पंचम श्रेणी उत्तीर्ण करके बदला हमारा स्कूल
बच्चों ने कर लिया छट्ठी श्रेणी में काठ-कलम छोडकर पेन को लेखन में मशगूल।
हो गये बच्चे कक्षा में हम थे बहुत सारे
पर फिर भी लगते थे नयन किरना के हमको सबसे प्यारे।
एक-दूसरे को पढ़ाई-लिखाई में पीछे छोड़ने की लगी होती होड़ थी
यही शायद हमारे परिपक्व जीवन कि कश्ती मोड़ थी।
होती दिनभर बातें सबसे बचकानी
हर विद्यार्थी को होती थी शायद पठन पाठन में परेशानी।
सुबह प्रातःकाल की प्रार्थना का अपना जोश
हम भी भाषण देकर गवा देते थे कभी अपने होश।
प्रथम-द्वितीय का यहाँ पर भी था बोलबाला
पर जुबां पर लगा लिया था एक-दूसरे से बातचीत न करने का ताला।
शरारतें हमारी भी थी विद्यालय में बेशुमार
खाई है हमने कभी आपके हाथ की मार।
वो दशम श्रेणी का मेरा रूठना याद मुझे
वो कागज़ का टुकड़ा, अंतिम डेस्क पर आकर पास बैठना शायद याद होगा तुझे।
साथ गुजारे विद्यालय के दस बर्षों का अपना फितूर रहा
बदले स्वप्न बदली कहानियाँ वक्त के साथ जिन्दगी का कारवां दूर रहा।

~ खेम चन्द

हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
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