खेत-गांव की व्यथा

खेत-गांव की व्यथा

कुछ हंसता, कुछ रोता हूं मैं,
मेघों से कुछ कहता हूं मैं।

यहां बरसा, वहा क्यूं नही बरसा,
खेतों वाला गांव क्यूं तरसा,
रही तुम्हारी जिसे जरूरत,
उस खेत का दर्द सुनाता हूं मैं।

तुम आओगे सावन लेकर,
दिन सोने-से पावन लेकर,
इन आशाओं में डूबे उस,
खेत की प्रीत बताता हूं मैं।

भरी दूपहरी, आषाढ़ी दिन,
जल बिन गांव काटे गिन-गिन,
पेड़, गिलहरी, चिड़िया, गुमसुम,
खेत की व्यथा लिखता हूं मैं।

~ मुकेश बोहरा ‘अमन’

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