बाल श्रम निषेध दिवस २०२०

बाल श्रम निषेध दिवस २०२०

विश्व बाल श्रम निषेध दिवस की शुरुआत अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ ने वर्ष २००२ में की थी। प्रत्येक वर्ष १२ जून को बाल श्रम निषेध दिवस मनाया जाता है जिसका मुख्य उद्देश्य लोगों को १४ वर्ष से कम उम्र के बच्चों से श्रम न कराकर उन्हें शिक्षा दिलाने के लिए जागरूक करना है।

भारत में बालकों से मजदूरी कराना गैर-क़ानूनी और सभी बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देना अनिवार्य किया गया है। हिन्दी कलमकारों ने विश्व बाल श्रम निषेध दिवस पर अपनी कविताएं प्रस्तुत की हैं-

देखा नहीं जाता ~ चेतन दास वैष्णव

ऐसा बचपन देखा नहीं जाता,
रोता-बिलखता व सिसकता,
मेले-कुचले अधनंगे कपड़ों में,
बचपन जीत वो अभावों में,
सड़क किनारें फुटपाथ पर,
गुजर-बसर करता हुआ,
कोई दुध को तरसता,
कोई भूख को तरसता,
कोई माँ के आँचल को तरसता,
ऐसा बचपन देखा नहीं जाता,
शिक्षा पाने की उम्र में,
स्कूलों में जाने की बजाय,
घर-खेत और फैक्ट्रियों में,
वो करता हैं मज़दूरियाँ,
बचपन बना बाल बधुआ मजदूर,
पीढ़ी दर पीढ़ी यूहीं सह रहा हैं,
अपने अनुभवों में जी रहा हैं,
वो अपने आक्रोश को पी रहा हैं,
तभी तो मासूम बन रहें हैं बाल अपराधी,
ऐसा मंज़र देखा नहीं जाता,
अभावों में जीता हुआ,
ऐसा बचपन देखा नहीं जाता।

चेतन दास वैष्णव
कलमकार @ हिन्दी बोल इंडिया

बाल मजदूरी ~ कुमार किशन कीर्ति

इन बाल मजदूरों को देखकर
कभी-कभी यह सोचता हूँ
कब यह बाल मजदूरी खत्म होगी?
कब इन मजदूरों का भविष्य सवरेगा?
पढ़ने की उम्र में जब यह
बाल मजदूरी करते हैं, सच में कहूँ
ये समाज पर एक प्रश्न खड़ा करते हैं

आज बाल मजदूरी एक
अभिशाप बन चुका है
इस समाज के लिए
चुनौती बन चुका है
यह बाल मजदूरी इस देश
से ही देश का भविष्य छीन रहा है
हाथ मे कलम और किताब
की जगह नोट थमा रहा है
इसलिए, देश की भविष्य को
सवारना होगा, और बाल
मजदूरी को समाप्त करना होगा
तब मुस्कान होगी हर बाल मजदूर
के चेहरें पर, जब बाल मजदूरी की
अभिशाप से वे मुक्त होंगे

कुमार किशन कीर्ति
कलमकार @ हिन्दी बोल इंडिया

बाल श्रम ~ प्रीति शर्मा “असीम”

मेहनत कर करता गुजारा।
जीवन का कर्म एक सहारा।
किस्मत ने किया जिसे वरण,
बाल श्रम की व्यथा मर्म-मर्म।

हर कोई है दुत्कार जाता।
कोई प्यार से कभी पास बुलाता।
छोटे हाथों के बड़े कर्म,
बाल श्रम की व्यथा शर्म-शर्म ।

जीवन के संघर्ष से लड़ता।
अपने फर्जो को पूरा करता।
बचपन खेल के बस रहे भरम।
बाल श्रम उन्मूलन हो धर्म-धर्म।

प्रीति शर्मा “असीम”
कलमकार @ हिन्दी बोल इंडिया

बाल मन ~ पुजा कुमारी साह

वक्त की तीख़ी मार ने हमें, जीन सीखा गया।
कुछ हो न हो हमे परिश्रम, करना सीखा दिया।

बाल श्रम की पीर से, चोटो की गम्भीरता से
जीवन की कठुरता से, हमें जीना आ गया।

माँ के फटे आँचल देख,
ईंटो की झुलसती भठी में जलना आ गया।

अश्को की जंजीरता से,
लोगों की निष्ठुरता ने हमें जीना सीखा दिया।

माँ-बाप के प्यारे हम भी, बहनों के दुलारे हम भी
पर! गरीबों की बस्ती में, आशु छुपाना आ गया।

जिंदगी जीने के मक़सद कुछ और ही थे,
इरादों को मसूबों तक करना आ गया।

भावों को स्वार्थी जिंदगी में,
इंसान को इंसानियत का कहानी समझना आ गया।

अंधेरों भरी जिंदगी में,
जुगनुओं सी रोशनी को तलाश करना आ गया।

व्यंग, हास्य कस्ते दूजे भी, जिवन को जीवित
रखने का हुनर बचपन से ही आ गया।

पुजा कुमारी साह
कलमकार @ हिन्दी बोल इंडिया

बदनसीब बचपन ~ विनय कुमार वैश्कियार

अपनो से दूर किसी कारखाने में
चिंघाड़ते मशीनों के शोर के बीच
ग्राहकों से ठूंसी किसी होटल में
बेतरतीब फैले जूठे बर्तनों के ढेर के बीच
कुम्भ्लाता बचपन, घुटता बचपन

हाईवे के किसी मोड़ पे
चंद रोटी की आस में
लगते बाज़ारों के किसी ठौर पे
दो-चार निवाले के जुगाड़ में
भूखा बचपन, अभावग्रस्त बचपन

भेड़िये-शिकारियों के जाल में
कोमल मन मजबूत चुंगुल में
कुछ अपनो के ही नकारेपन से
प्यारे-नन्हे रहते किस हाल में
कराहता बचपन, कलपता बचपन

अय्याशी की चारदीवारी में
साहबों के पाँव दबाते
नेकी की किसी कोठे पे
मासूमों से मधुशाला सजतें
खोता बचपन, रोता बचपन

कुछ मासूमों का बचपन इतना बदनसीब क्यों हैं
विकास की कई सीढियाँ चढ़ कर भी,
हमारी सोच जस -की-तस क्यों है

क्या हम कुछ नही कर सकतें
एक सुन्दर बचपन नही दे सकतें

जन्म जब हमने दिया, तो इनका क्या क़सूर है
बोझ तले ये दबते क्यों, क्यों हालात से मजबूर हैं

हो जाये प्रण आज, हम हर एक फूल खिलने देंगे
हो चाहे हालात जैसे भी, हम बचपना ना कुचलेंगे

विनय कुमार वैश्कियार
कलमकार @ हिन्दी बोल इंडिया

लाल हरी चूड़ियां ~ इं० हिमांशु बडोनी (शानू)

यहां की प्रत्येक महिला को साहब,
बहुत भाती हैं ये लाल हरी चूड़ियां!
श्रृंगार का प्रमुख भाग बनता इनसे,
न जाने कैसी भरी हैं इसमें खूबियाॅं!

क्या मालूम है ये कड़वा सच इन्हें,
हमें काम कितना करना पड़ता है?
कांच के टुकड़े जुटाने में हमें यहां,
धूप में भूखा ही सड़ना पड़ता है!

कांच मिलते ही हमें मालिक द्वारा,
काली कोठरियों में फेंका जाता है!
जहां अधिकांश अंधेरा फैला रहता,
बस भट्टी का गर्म झोंका आता है!

अन्दर की घुटन में काम करते हुए,
न जाने कब ये उम्र निकल जाती है!
बाहर आते ही छा जाता बस अंधेरा,
आंखें बमुश्किल कुछ देख पाती हैं!

किंतु दूसरी तरफ तैयार मिलती हैं,
चूड़ियों की कई रंग बिरंगी लडियां !
यहां की प्रत्येक महिला को साहब,
बहुत भाती हैं ये लाल हरी चूड़ियां!

ये काला कारोबार है चलता वहां,
जहां इस देश की तंग गलियां हैं!
हर दिन मुरझाता एक फूल यहां,
नुचती उसकी समस्त कलियां हैं!

यूं नित पिस जाने पर भी देखो,
होता हमारा तनिक सम्मान नहीं!
हम भी इंसा हैं ऐ मिल मालिक,
कोई शक्ति स्वरूप भगवान नहीं!

विरोध कभी जो किया हमने तो,
हमें जेलों तक घसीटा जाता है!
भूखा व प्यासा रख हफ़्तों तक,
घोर निर्ममता से पीटा जाता है!

मजूरी करते हैं हम सब इनकी,
पहन पैरों में मोटी मोटी बेड़ियां!
यहां की प्रत्येक महिला को साहब,
बहुत भाती हैं ये लाल हरी चूड़ियां!

न कोई प्रबल नायक है अपना,
न ही है कोई सामर्थ्यवान नेता!
हमारा गुलामी का ये पेशा हमें,
थू थू कर अब तो लानत है देता!

अब तो शायद दिन व रात हमें,
बस यही सोचकर जीना होगा!
जीवन कर्कश कंटीली शैय्या है,
इसका ये विष हमें पीना होगा!

न जाने किस रोज़ मिटेंगी यहां,
ये ज़ात और धर्म में खिंची दूरियां!
यहां की प्रत्येक महिला को साहब,
बहुत भाती हैं ये लाल हरी चूड़ियां!

ज़रा बरसने तो दो विद्या का जल,
खिलते तो दो यहां नन्हे नन्हे फूल!
मूर्छित न होने पाए एक भी इनमें,
हटा दो इनकी राहों से सभी शूल!

इस संघर्ष में थम लो इनका हाथ,
रह न जाए कहीं ये जंग अधूरी!
बन्द करवा दो सभी मौत के सौदे,
अब न हो कभी बाल मज़दूरी!

फिर शीश उठाए जो ये शोषण कभी,
तो आरोपियों पर लगी हों हथकड़ियां!
यहां की प्रत्येक महिला को साहब,
बहुत भाती हैं ये लाल हरी चूड़ियां!

इं० हिमांशु बडोनी (शानू)
कलमकार @ हिन्दी बोल इंडिया

बालश्रमिक के मन के भाव ~ पार्थ अवस्थी

मैं नन्हा सा प्यार बच्चा, है मेरी भी छोटी इच्छा
मै पढूं लिखूं कुछ नाम करूं, देश में अच्छा काम करूं
पर इस गरीबी की मार से
मेरा बचपन मेरी इच्छा, लगते सब झूठे सपने
इक घर भी नहीं नसीब में है, अब ये फुटपाथ है घर मेरा
मैं भी चाहूं, खेलूं कूदूं, पर कुदरत को मंजूर नहीं
है किस्मत ही फूटी मेरी, जो भटकाए मुझको दर दर
कोई हाथ नहीं देता, कि मैं उन हाथों को थाम सकूं
कोई मुझपे हंसकर जाता, तो कोई तरस खा जाता है
ये दुनिया बस स्वार्थ की है, जिसे अपना अपना दिखता है
इन्हें नहीं दिखा ये दर्द मेरा, हम कैसे जीवन जीते हैं
इस कचड़े में ही खाते हैं, इस कचड़े में ही सोते हैं
फिर इक दिन ऐसा आता है, इस कचड़े में मर जाते हैं
इस देश के नेता कहते हैं, भविष्य देश का हैं बच्चे
फिर क्यूं ये गंदी राजनीति, हम पे ही करते जाते हैं
क्यूं हमसे काम कराते हैं, क्यूं हम मारे जाते हैं
क्यूं हम मारे जाते हैं ।

पार्थ अवस्थी
कलमकार @ हिन्दी बोल इंडिया

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