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परंतप मिश्र के तीन लेख

1. संबंधों की अनिवार्यता

हमारे दैनिक जीवन में हम प्रतिदिन कुछ नया सीखते हैं। बनते और बिगड़ते सम्बन्ध लोगों की मनोवृति की अनुकूलता, विचारों की स्वीकार्यता, प्रारब्ध कर्म, आचार- विचार, परिस्थिति और समाज का परिणाम है।

हमारा प्रयास अपने संबंधो को जीवित रखने का होना चाहिए। सम्बन्ध जो बने वो सहेज लेने चाहिए। आदर और सम्मान परस्पर होना चाहिए। दैनिक जीवन के संबंधो की अपनी एक दुनियाँ है। जहाँ अमूल्य अनुभवों के फल लगते हैं, जो हमारे सम्पूर्ण जीवन की उपलब्धि है।

सामान्य जीवन चर्या में बहुत से ऐसे अवसर आते हैं जब हमारे सबंध प्रभावित होते हैं। जहाँ प्रीतिकर परिणाम देने वाले अनुभव सुख की अनुभूति दे जाते हैं तो वहीं मन के अनुकूल परिणाम न प्राप्त होने पर कुछ कटु अनुभव भी होते हैं। परन्तु वह भी जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। सभी का अपना महत्व है। अगर ऐसा न हो तो जीवन नीरस सा लगने लगेगा इसलिए दोनों प्रकार के अनुभव जीवन के अनुभवों की रंगोली है।

हमारे सम्बन्ध कभी परिस्तिथि विशेष, तर्क–वितर्क, संदेह, आत्मश्लाघा अथवा स्वार्थ से प्रभावित होकर टूट जाते हैं। और हम अपना साथी और एक सम्बन्ध को खो देते हैं। जिसको कभी अंकुरित किया गया होता है, अपनेपन के जल से सींच कर। उसकी टहनियों और फूल पत्तियों की भी परवाह नहीं करते जो कभी आनंदित करते थे अपने सुरभित वायु से। दुष्परिणाम स्वरूप सम्बन्धों के वृक्ष में जब फल, जो बस प्रस्फुटित होने को था पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता। सम्पूर्ण समाज के कल्याण का संदेश देने की उपलब्धि से पूर्व पतित हो जाता है।

संदेह और मतभिन्नता की सम्भावना प्राकृतिक है। जिसको वार्ता और स्वीकार्यता से हल किया जा सकता है। विचारों में भिन्नता एक सामान्य क्रिया है, परन्तु सभी विचार एक सोच का परिणाम हैं। मस्तिष्क में विचारों की एक अनवरत श्रृंखला यात्रा करती है, सोते और जागते। विवेक के द्वारा हम अपने विचारों को संयमित करते हैं।

सभी संबंधो का सविवेक आदर करते हुए जीवन के पथ पर अग्रसर होना समाज की गतिशीलता का परिणाम है। समबन्ध एक उपलब्धि है प्रेम की और जीवन की नियति भी। प्रेम शब्द बड़ा ही व्यापक है, जिसे आजकल संकुचित कर दिया गया है। वैसे प्रेम तो संबंधों की आधारशिला है, एक दूसरे के पूरक भी कहे जा सकते हैं। यहाँ पर संबंधो की चर्चा है अतः प्रेम की व्यापकता की चर्चा फिर किसी दिन विस्तृत रूप से अपने मत को आओ लोगों के समक्ष रखूँगा।

निस्वार्थ और समर्पण प्रेम की सुंदरता का वातावरण तय करते हैं और समाज की समृद्धि का प्रतीक बन जाते है। यही संबंधों की नीव है। समय के इस काल चक्र में सब कुछ परिवर्तनशील है परन्तु कुछ चीजें ऐसी भी हैं जो समय से प्रभावित नहीं हैं, कालातीत हैं।

एक सफल सम्बन्ध बहुत सारे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रयासों का प्रतिफल होता है, जिसकी निरंतरता हमारे आपसी समझ पर निर्भर करती है। समय अथवा संदेह की एक ठोकर से इसको समाप्त नहीं करना चाहिए। किसी भी सम्बन्ध का निर्माण बहुत समय लेता है और विच्छेद एक पल में हो सकता है। अपनेपन की मिट्टी को जब हम त्याग के जल से गूंथ कर समर्पण के चाक पर व्यवहारिकता के कुशल हाथों से एक कच्चे घड़े जैसे एक सम्बन्ध को सँवारते हैं तो वह समय के लौ पर पक कर हमारे भावनाओं के जल को शीतल बना जाता है। मौसमी गर्मी के थपेड़ों और जलती हुई लू से सुरक्षित कर पुनः शक्ति का संचरण कर जाता है । इस अमृत जल पात्र को मानवता का सन्देश मानकर सुरक्षित रखें झूठे अहंकार की चोट से क्षतिग्रस्त न होने दें।

जो पल कभी सुखद था वह स्यात दुखद हो जाता है। पल तो समय की एक इकाई है, क्योंकि समय तो पलों में जीता है। परन्तु इसकी पुनरावृति नहीं होती जो समय एक पल में व्यतीत हो जाता है, वह कभी वापस नहीं आता। केवल स्मृतियाँ ही शेष रह जाती हैं। अतः हर पल को एक जीवन की तरह जीना ही जीवन की कला है। जीवन के हर एक पलों को पूर्णता से विस्तारित कर सम्बन्धों को पुष्ट करते जाना है।

दैनिक जीवन में विचार विनिमय और मतभिन्नता का समावेश होता है तो कुछ नया सीखने को भी मिलता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी मानसिक स्थिति है और विचार उसके परिणाम। यह आवश्यक नहीं की किसी के सभी विचार आपके लिए ग्राह्य हों अथवा आपके अनुकूल हों या उनमें समानता हो पर मध्यम पथ का अनुसरण सह-जीवन के लिए उपयुक्त होता है।

संबंधो को मतभिन्नता से न तोड़ें। मत में भिन्नता स्वाभाविक है परन्तु मन भिन्नता कभी न करें। मतभेद हो सकते हैं लेकिन मन भेद नहीं होना चाहिए । परस्पर सम्बन्ध श्रेष्ठता की सिद्धि के लिए नहीं स्वीकार्यता के लिए होता है, किसी पर विजय प्राप्त करने के लिए नहीं उससे हार कर अपनी जीत का मार्ग भी प्रशस्त किया जा सकता है। शक्ति बंधनें में है बिखरने में नहीं। कितने ही तरह के धागे अपनी भिन्नता को भूलकर एक मजबूत डोर का निर्माण कर जाते हैं।

एक सफल अथवा असफल सम्बन्ध अदृश्य रूप से कई जन्मों तक की यात्रा करता है और हमारे जीवन में कहीं न कहीं किसी मोड़ पर खड़ा मिलता है। यह भी एक मनोविज्ञान का विषय है कि जब हम किसी से अटूट सम्बन्ध रखते हैं तो हमारे बीच एक अदृश्य तार जुड़ जाते हैं। दैनिक जीवन में हम इसका अनुभव कर पाते है। जैसे किसी का स्मरण करते ही उसका भी प्रस्तुत होना। मन की तरंगें आपस में भावों को प्रवाह देती हैं। यहाँ तक की किसी का अच्छा लगना और बुरा लगना भी पूर्व की क्रियाओं का परिणाम ही होता है।

मेरे जीवन की एक अद्भुत घटना स्मरण करता हूँ तो आँसू रोक नहीं पाता हूँ। मेरी दादी को मैं बहुत प्रेम करता था और वो भी मुझसे उतना ही स्नेह करती थीं। उनकी उम्र लगभग ९० वर्ष की रही होगी और अस्वस्थता के कारण कोलकाता अस्पताल में भर्ती किया गया। मैं उस समय अहमदाबाद में था बहुत ही व्यथित था, यह सब सुनकर।न जाने कब एक झपकी लग गयी थी और मैंने ऐसा अनुभव किया कि वो मेरे समक्ष खड़ी हैं।अर्धचेतना में ही मैं सोचने लगा कि दादी तो कोलकाता में बीमार हैं। पर उनको समक्ष देखकर रोते हुए उनसे लिपट गया। उन्होंने भी मुझे सहलाकर बैठाया और कहा “कुछ खाए पीये हो की नहीं, कैसी हालत बना रखी है, बहुत कमजोर हो गये हो। अपना काम खतम करके आओ मैं तुम्हारा घर पे इन्तजार करती हूँ।” इतना कहकर उन्होंने अपना हाथ छुड़ा लिया था और मैं जाग गया। चारो तरफ देखा गालों पर आंसूओं की नमी देख लोग समझाने लगे। कुछ पल के बाद ही मेरे पिता जी ने उनके दिवंगत होने की सूचना दी। मैंने परिक्षण कर देखा तो उनके स्वर्गवास का समय और मेरे स्वप्न का समय एक ही था। मेरे लिए मेरे सम्बन्ध मेरा सबकुछ हैं इसमें मेरे लोग मेरी स्मृतियाँ निवास करती हैं।

संसार की सुंदर फुलवारी में जीवन के सुगंधित पुष्पों पर सुशोभित गुणों के परागकण से सम्बन्धों के बहुरंगी तितलियों का सामाजिक सौन्दर्य पोषित होता है।


2. आत्मनिर्भरता

पुरातन अद्यतन पर्यन्त प्रादुर्भूत प्रथाओं के प्रारम्भ का प्रारुप प्राक्कलन तत्कालीन समाज के परिश्रम प्रबंधन से प्राप्त परिणामस्वरूप प्रकृति द्वारा प्रद्दत प्रसाद के रूप में पर्व का पर्युषण है । भारतीय ज्ञान के महासागर में न जाने कितनी बौद्धिक चेतना की नदियों का जल समाहित है, लहर हर लहर में नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों का संरक्षण है, प्रवाहित तरंगों की स्वरलहरी में अगणित सिद्धांतों का संगीत गूँजा करता है । धाराओं के अस्तित्व स्वरुप हर एक बूँद में महापुरुषों का योगदान रहा है । विकास की वायु से सुरभित काल की गति पर जलप्रवाह के तटों पर कटते हुए किनारे सभ्यताओं को सहेजे साथ-साथ बह रहे हैं, जिनपर कभी संस्कृतियों की उन्नत परंपराओं को सींचा गया था ।

प्रवृत्ति के अनुसार गुण-धर्म का प्रकटीकरण स्वाभाविक स्वाभाव की प्राकृतिक अभिव्यक्ति हुआ करती है । चराचर जगत में उपलब्ध जीवों की नैसर्गिक जिंजिविषा में आत्मनिर्भरता का बीज विद्यमान हुआ करता है, अर्थात जीवन के मूल में स्वावलम्बन जीव की अंतर्निहित शक्ति का सम्मान है । प्रत्येक जीव में विद्यमान स्वावलंबी प्रवृत्ति के फलस्वरूप आत्मसंतुष्टि का अनुभव आत्मनिर्भरता की आधारशिला है । मूलरूप से स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता जीवन की मौलिकता का निर्माण है, तो वहीं परतंत्रता एवं पराधीनता स्वाभाविक जीवन के विपरीत अवरोध का प्रमाण है । स्वाभाव के अनुरूप संपादित कार्य अनुकूलता की विशेषता से शुभ- परिणामदायक हुआ करते है, जबकि प्रतिकूल आचरण विनाश के पथ का मार्ग प्रशस्त कर जाता है ।

गोस्वामी तुलसीदास ने बड़ी ही सहजता से परावलम्बी को अभिशाप मानकर कहा था “पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं” अर्थात जो व्यक्ति दूसरों पर आश्रित होता है, उसे सुख की अनुभूति जीवन की तीनों अवस्थाओं निद्रा, जाग्रति और सुषुप्ति में कभी भी नहीं हो सकती । स्वप्न की कल्पना में भी वह पीड़ा का ही अनुभव किया करता है । आधुनिक मानव को अपने विवेक से आत्मनिर्भरता की सीमारेखा पर उपस्थित वरदान एवं अभिशाप के भेद को स्वीकार करना होगा । उन्नति और अवनति के मार्गों का चयन परिक्षण द्वारा करना होगा, शुभ और अशुभ फलों पर विचार कर उचित निर्णय लेना होगा ।

सृष्टि के आरम्भ से ही प्रकृति के संरक्षण में जीवों के विकास एवं विनाश का चयन, योग्य एवं अयोग्य की उपयोगिता के आधार पर उन्नत गुणों के संवर्धन से हुआ है । चर और अचर सभी प्राणियों के जीवन ने सहभागिता से सहजीवन को सम्मानित किया है । क्रमिक विकास की प्रक्रिया में स्वाभिमान का बोध आचरण की मर्यादा के विस्तार का कारण बना । जरामय जीवन की सफलता का आकलन, संतति की उत्कृष्टता का निरंतर प्रवाह के रूप में होतारहा है । जीवों में मानव को श्रेष्ठतम संरचना की स्वीकारोक्ति उसके विवेक-बुद्धि के बल पर प्रदान की गयी है ।

अपने कौशल से मानव ने आत्मनिर्भरता की यात्रा में, प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के द्वारा जीवन-शैली को विकसित किया था । उपलब्ध कंद-मूल-फल को आदर से स्वीकार करते हुए कृषि की ओर उन्मुख होकर, आत्मनिर्भरता के विस्तार का आरम्भ किया गया था । अपने कठिन परिश्रम से प्राप्त अन्न के सम्मान व स्वानुभूति के सुख को प्रकट करने के लिए पर्वों के प्रचलन का प्रादुर्भाव हुआ । तत्पश्चात कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उन सभी चर-अचर जिनसे हमें कुछ प्राप्त हुआ है, उनके संरक्षण-संवर्धन एवं सम्मान की अभिव्यक्ति का साभार आयोजन होने लगा था । परस्पर आदर सम्मान की विचारधारा ने समाज के संगठन में आचरण की शुद्धता से नैतिक मूल्यों से ओतप्रोत विचारधाराओं को आत्मसात किया । समाज की विकसित होती परिकल्पना ने दायित्व एवं कर्तव्यों की दक्षता के अनुरूप कार्यों का वर्गीकरण कर उनकी विशिष्टता के मूल्यांकन का अभिनन्दन किया । जो आगे चल कर स्वकर्म करते हुए समाज के हरवर्ग के महत्व एवं प्रतिनिधित्व को स्वीकार करते हुए, उनकी आत्मनिर्भरता को पुरस्कृत किया गया। स्वतंत्र स्वेच्छाचारिता को स्वानुशासन से नियंत्रित कर आदर्शों की स्थापना हुई थी ।

पृथ्वी के विस्तीर्ण साम्राज्य पर देश-काल-वातवरण के अनुरूप प्रायोजित सभ्यताओं के भूभाग पर उस समाज की सामाजिक व्यवस्था अपनी पहचान पाने लगे थे । वैदिक काल से ही भारतीय सभ्यता, जो समृद्ध, सुसंस्कृत, और सुव्यवस्थित होकर श्रेष्ठता को उपलब्ध होती रही है। फिर चाहे वह शारीरिक, मानसिक, समाजिक, शैक्षिक, कृषि, चिकित्सा, वैज्ञानिक, क्षेत्र हो या कला का विस्तार हो । सभी क्षेत्रों में निरंतर प्रगति करते हुए, अध्यात्मिक जगत का अभूतपूर्व विश्लेषण कर विश्व में आत्मज्ञान की महत्ता का सन्देश दिया है ।

ज्ञान की पराकाष्ठा और कर्म की उत्कृष्टता से कर्तव्यों का संचालन संस्कार, संस्कृति का आरोहण माना जाता रहा है जो समस्त मानवजाति के लिए अनुकरणीय बना रहा । जैसा की उपरोक्त वर्णन किया गया है, देश-काल एवं परिस्थियों पर आचार-व्यवहार तथा अनुकूलता की मीट्टी में संस्कृतियों ने सभ्यताओं को स्थापित किया था ।

सभ्यताओं के विशेष संस्कृतियों का संक्रमण सीमाओं को तोड़कर कभी स्वीकार की गयीं थीं। जिससे समाज को नई नीतियों एवं परम्पराओं को जानने का अवसर तो मिला, पर मूल संस्कृत की उपेक्षा पर आरोपित विदेशी संस्कारों का समावेश गुण-धर्म की कसौटी पर परखे नहीं गए । और केवल अंधानुकरण करने से उन्नत स्वसंस्कृति का वटवृक्ष आरोग्यता को प्राप्त नहीं कर सका । आत्मनिर्भर भारत का समृद्ध समाज निज पहचान को त्याग कर, केवल कर्मचारी निर्माण की शिल्पशाला बन पराश्रितता को प्राप्त होने लगी ।

किसी भी देश की सभ्यता का मूल्यांकन उस धरा की पृष्ठभूमि पर ही की जाती है । हो सकता है कि वहाँ उस देश काल वातावरण के अनुसार वह श्रेष्ठ रहीं हों, उसका आदर करना हमारे नैतिक दृष्टिकोण पर करता है । पर वही सभ्यता बदले हुए पर्यावरण में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सके यह पुर्णतः संभव नहीं है। मिटटी की गुण-धर्म के पोषण में वातावरण के अनुकूलता की फुहार से बीज प्रस्फुटित होकर अंकुरित होता है । समय की बयार से पौधे से वृक्ष तक की यात्रा करता हुआ, क्रमशः फूल और फल से सुशोभित हुआ करता है । पर जब हम किसी पादप को बलात् उसकी मिट्टी से दूसरी मिट्टी में आरोपित किया जाता है , तब पारिस्थितिकी परिवर्तन के कारण परिणाम प्रतिकूल हुआ करते हैं ।

निश्चितरूप से सभी संस्कृतियों का सदा सम्मान रहा है । उनकी अपनी विशेषताएँ भी रहीं हैं । पर जन्मस्थली के प्राकृतिक पोषण पर गुण-धर्म विकसित हुआ करते हैं । तोड़ी गई अथवा चुराई गयी टहनियाँ अपनी जड़ों को तलाशती रहती हैं, तो वहीं उन पर लगे पत्ते व फल-फूल पोषण के अभाव में पल्लवित-पुष्पित होना तो दूर खर-पतवार बनकर रह जाती हैं । सूखती हुई आत्मनिर्भर जड़ें अपनी मीट्टी की ममता का स्मरण करते हुए जीवन का त्याग कर जाती हैं । कृत्रिम पुष्पगुच्छ कभी नैसर्गिक सुगंध का निर्वहन नहीं कर सकते हैं ।

आज हम पुनः अपनी मेधाशक्ति, विश्वसनीयता और ज्ञान-अनुसन्धान के सामर्थ्य से स्वदेशी की गर्वानुभूतिक उपयोगिता को आत्मसात करते हुए, विश्वपटल पर आत्मनिर्भर राष्ट्र की ओर प्रतिपल अग्रसर हो रहे हैं । निश्चित ही हम कटिबद्ध होकर स्वराष्ट्र चिंतन से समाज, संस्कृति, संस्कार, शिक्षा, सेवा, संकल्प, सद्वृत्ति, स्वाभिमान, सद्भावना के द्वारा समुन्नत सम्पन्नता के परम् लक्ष्य को प्राप्त करेंगे ।

व्यष्टि से समष्टि के कल्याण की अवधारणा आत्मिक मंथन से आप्लावित आत्मनिर्भरता को प्रशस्त करती है । सामाजिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति का अंशदान, राष्ट्र के उत्थान में प्रत्येक नागरिक की सहभागिता सहजीवन को सुनिश्चित करता है । पर्यावरण के संरक्षण, तकनीकी विकास, औद्योगिक क्रांति, आर्थिक समृद्धि, सामरिक सुरक्षा, जन कल्याण, स्वच्छता एवं स्वावलम्बन इत्यादि के प्रति सजग रहकर निरंतर नैतिक मूल्यों एवं आदर्शो के प्रकाश में सतत प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं ।

पुर्णतः आत्मनिर्भर भारत की सर्वांगीण विकास यात्रा के पथ पर हमसब, अपने हिस्से के पदचिन्हों के योगदान को अमिट बनाते चलें । यह आह्वान हमारे सुयश, सत्कीर्ती, स्वाभिमान में उत्तरोतर सुपरिणामदायी और विश्वगाँव के लिए चिरस्थायी शुभफलदायी सिद्ध हो ।

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।

-ऋ० १०/१९१/२


3. संतुलन

प्रकृति के प्रतिकूल हुए आधुनिक अनुसन्धान की विस्तृत पवर्तमालाओं के साम्राज्य पर वैज्ञानिक उपलब्धियों के उन्नत शिखरों की निर्मम कठोरता भी मंद विरुप्य वायु के स्पर्शमात्र से छिन्न-भिन्न हो पत्थर के टुकड़ों में परिवर्तित हो रही है।

नि:शब्द शिलाओं से कल्पना की कोमलता ने कौशल की छेनी व हथौड़ी से सरगम के रागों का परिचय करा, सुंदर आकृतियों में मुखर अभिवक्तियों के संगीत पिरोये थे। परन्तु कान के पर्दों पर दुर्गुणों की मैल अब इतनी जम गई है कि भावना के झरनों की सुरम्य म्रदयति संगीत मौन हो चली है और अब वहाँ पृथ्वी से अन्तरिक्ष तक गूँजती कर्कश कोलाहलपूर्ण ध्वनियाँ ही प्रवेश कर पाती हैं। संवेदनाओं की असीम शांति में मन का कोई कोना जब मौन मुखरित होता है तो अनहत नाद का झरना बह निकलता है।

सृष्टि के नियमों की अनदेखी करते स्वयम्भू सृष्टिकर्ताओं की स्वर्ग को स्पर्श करती महत्वाकांक्षी निःश्रेणिका के निर्बल दांडे तृष्णा के भारों का वहन करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं। सर्वशक्तिमान होने का मिथ्याभिमान तिलस्म एक दिवास्वप्न की भाँति सत्य के प्रकाश के समक्ष पराजित होकर नतमस्तक है। नियति की अपनी नीति हुआ करती है जो काल के वलय में प्रतीक्षित रहती है।

वैश्विक सभ्यताओं के अथाह महासगर की विशाल जलराशि में न जाने कितने देशों के संस्कृतियों की नदियों का जल समाहित है। सागर के मौजों की भयावह ललकार में नदी की धाराओं का मनमोहक गान उपस्थित होता है। शोर में नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों की स्वर-लहरी हो सकता है मंद प्रतीत हो रही हो पर अस्तित्वहीन नही है। तभी तो शक्ति के कठोर उद्घोष में भी समर्पण का माधुर्य प्रवाहित हुआ करता है।

मानवीय सम्बन्धों के सुदृढ़ किनारे भी कृत्रिम व्यवहारों से निर्मित दूषित विचारों की बाढ़ से कट-कटकर स्वच्छ लहरों को मलिन करते साथ-साथ बह रहे हैं। स्वार्थ के अस्थायी द्वीपों पर कल्पित प्रतिमानों की काई इकट्ठी होती जा रही है, पर लहर-हर-लहर उसके विनाश की चेतावनी अपने कोमल स्पर्श से दे जाती है।

जीवन के यज्ञ में चर-अचर का स्वाभाविक आचरण धर्म की वेदी पर अर्पित कर्तव्यों की समिधा से फलित होता है। धर्म वह जो धारण किया जाय, जो स्वभाव है, जो जीवन है, जो नैसर्गिक अभिवयक्ति का आधार है, कर्तव्यों का निर्धारण है, नियमों का पालन है, जीव का आदर है, मानवता का सम्मान है, गुणों का परिमाण है, लक्षणों का विज्ञान है, मोक्ष का परिधान है।

स्वभाव के अनुरूप कर्म का प्रतिपादन धर्म का लक्षण और प्रकृति के साथ अनुकूलता इसका मुख्य गुण है। “धर्मो रक्षति रक्षितः” जब धर्म रक्षित होगा तो धर्म भी रक्षा करेगा। अर्थात् स्वधर्म का पालन ही आत्मरक्षा है। हमारे मनीषियों ने इसकी महत्ता को परस्पर सम्मान और सहजीविता की स्वीकार्यता से सम्पादित किया था।

संतुलन की अनिवार्यता प्रकृति की प्रतिबद्धता है, फिर वो चाहे जैविक, रासायनिक, भौतिक, समाजिक, व्यवहारिक, इत्यादि किसी भी मानदण्डों के मापदण्डों की अवहेलना क्यों न हों उसे नियति के नियमों का पालन करना ही पड़ता है। समय के साथ अनुशासन निर्धारित होता है।

आपदाएँ, बिमारियाँ, महामारी, अकाल, सुनामी, भूकंप और बहुत सारे दुष्परिणामों के समक्ष मानवता असहाय होकर लज्जित हुआ करती है। सुपरिणाम-दुष्परिणाम के अनुभव की समीक्षा कर सहअस्तित्वबोध से आगे बढ़ना हमारे विवेक पर आधारित है। सुंदर संसार का निर्माण ईश्वर ने मानव को उपहार स्वरूप प्रदान किया है जिसमें “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना निहित है।

मानव ईश्वर की सर्वोच्च रचना है और हमें उनके पथ का अनुसरण करते हुए निरन्तर आगे की और अग्रसर होते रहना है।

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सज्जनाना उपासते।।

हमसब एक साथ चलें/हमारा मार्ग एक हो; हमारा वचन एक हो/ एक स्वर में बोलें; हमारे मन (विचार) एक हों। प्राचीन काल में ऐसा आचरण देवताओं का रहा है इसलिए वे वन्दनीय हैं।

~ परंतप मिश्र

This Post Has 2 Comments

  1. Harsh upadhyay

    बहुत ही सुंदर लेख पढ़कर अच्छा लगा|

  2. परंतप मिश्र

    धन्यवाद श्रीमान हर्ष उपाध्याय जी

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