मकरसंक्रांति से जुड़ी यादें

कलमकार सुमित सिंह पवार “पवार” ने मकर संक्रांति पर्व पर शुभकामनाएं देते हुए कुछ संस्मरण साझा किए हैं। आप भी पढ़ें-

१) पतंग और पढ़ाई

बात उन दिनों की जब मैं पुलिस ट्रेनिंग खत्म कर लखनऊ में तैनाती पा गया था और पहला थाना मिला मड़ियाव। मड़ियाव थाने की पहली बीट मिली घैला गांव। मैं घैला चौकी पर पहुँचा और एक बुजुर्ग होमगार्ड जो काफी समय से उस चौकी पर तैनात थे, उनसे मिला। उनका नाम था कप्तान सिंह। कप्तान दद्दा उसी साल दिसम्बर में सेवानिवृत्त हो रहे थे। कप्तान दद्दा बहुत लाजबाब और चौकन्ने आदमी थे। क्षेत्र की उनको बढ़िया जानकारी थी और रोज जब हम क्षेत्र भ्रमण पर निकलते तो वो मुझे पूरे क्षेत्र की बढ़िया से जानकारी देते। परिणाम ये हुआ कि जल्द ही मुझे मेरी बीट के सारे गांव के लोग जानने लगे और दिसम्बर आते-आते मेरे और दद्दा के बीच पिता-पुत्र सा स्नेह हो गया और दद्दा अपने भी सम्बन्ध सारे मुझसे जोड़कर सेवानिवृत्त होकर चले गये।

क्षेत्र के लोग अब दद्दा की जगह मुझे अपनी समस्या बताते और मैं भी तहेदिल से लग जाता हल खोजने में। जल्द ही लोग मुझसे जुड़ने लगे और मेरी पकड़ उस क्षेत्र में मजबूत हो गयी। मैं रोज सुबह-शाम क्षेत्र भ्रमण पर निकलता और ध्यान रखता क्षेत्र में कोई अप्रिय घटना न हो जाये। एक दिन में अल्लूनगर गांव की सड़क पर क्षेत्र भ्रमण पर था कि एक पतंग मेरी गाड़ी से टकरायी और माझा बाईक के हैंडिल में फंस गया। मैंनें वही बाईक रोकी और सावधानी से माझा सहित पतंग निकाली ही थी कि कुछ बच्चे मेरी ओर भागकर आ रहे थे। मैं समझ गया, पतंग लूटने वाले बच्चे हैं। मेरे हाथों में पतंग देख रूक गये। एक छोटा सा बच्चा दौड़ के अभी-अभी वहाँ पहुँचा था। शायद पीछे रह गया था उन सबसे। मैंनें उसे अपने पास बुलाया और उसको पतंग देने ही वाला था कि पतंग पर नजर गयी और नजर ठिठक गयी। गौर से पतंग को देखा तो वो पतंग “रमेश गुप्ता सर” की किताब के पन्नों से जोड़ के बनी थी। जो लोग “रमेश गुप्ता सर” को नहीं जानते, उन्हें बता दूँ। “रमेश गुप्ता सर” की किताब 11वीं-12वीं में जीव विज्ञान में पढ़ाई जाती है और डाक्टरी की पढ़ाई यहीं से प्रारंभ होती है। जब मैंनें 12वीं की थी तब ये किताब तीन सौ रूपये की थी। मैं ये सोच के ताज्जुब में था कि इतनी मंहगीं किताब को कौन फाड़ रहा है और पतंग बना रहा है?

मैंनें उस छोटे बच्चे को अपने पास बुलाया और उसका नाम पूछा। उसने अपना नाम केशव बताया। मैंनें पूछा, “केशव ये पतंग कितने की है?” उसने कहा, “पांच रूपये की।” मैंनें कहा कि तुम्हें पता है ये कहाँ मिलती है? उसने कहा, “हाँ।” मैंनें कहा, “मैं कहा मैं तुम्हें ये पतंग दे दूंगा मगर तुम्हें मुझे उस दुकान पर ले जाना होगा।” वो मान गया और गाड़ी पर बैठ गया। जल्द ही हम गांव में एक घर के सामने थे। वो उतरा और उस घर की तरफ इशारा करके पतंग लेकर भाग गया। मैंनें दरवाजा खटखटाया तो एक 16-17 साल का लड़का बाहर आया और बोला, “जी सर बताऔ।” मैंनें कहा, “छोटू यहां पतंग मिलती हैं?” वो बोला, “हाँ आपको चाहिये?” मैंनें कहा, “हाँ।” वो बोला, “कितनी?” मैंनें कहा, “चार ले आओ।” वो अन्दर गया और उसी किताब की बनी चार पतंग ले आया। मैंनें पूछा, “कौन बनाता है ये पतंग?” वो बोला, “मैं और मेरी छोटी बहन।” मैंनें कहा, “बेटा, इस किताब को मत फाड़ो, बहुत काम की किताब है वो”, “तुम ऐसा करो उस किताब को मुझे दे दो, और मैं तुम्हें पैसे दे देता हूँ।” वो बोला, “सर फाड़ना मैं भी नहीं चाहता पर पिताजी की पिछले साल ही मृत्यु हुई है और हम पर फीस भरने के पैसे नहीं हैं। मैं और मेरी बहन फीस के पैसे इकट्ठे कर रहे हैं। मकर संक्रांति की वजह से पतंग बिक रही हैं तो कुछ पैसे हो गये हैं और बाकी तो माँ काम करके घर चला लेती है।”

मैंनें कहा कल में आऊंगा और तुम साथ चलना, फीस मैं भर दूंगा तुम्हारी। और मेरी बहन की? उसने पूछा। मैंनें कहा, “वो भी मैं भर दूंगा” और मैं चला आया। अगले दिन जब मैं गया तो उसकी माँ मुझे वहाँ मिली और हाथ जोड़ते हुये बोली, “साहब आप रहने दो, मैं कुछ कर लुंगी।” मैंनें कहा, “तो ठीक है, आप भी करिये, आपको ही करना है, फीस मैं भर देता हूँ, बाकी खर्चा आप देख लीजियेगा।” फिर मैं उस लड़के को लेकर विद्यालय में पहुँचा और फीस पता की तो साल में दो बार भरी जाती थी बस और फीस भी कोई ज्यादा नहीं थी। मगर विद्यालय में पुलिस देख प्राचार्य महोदय खुद मेरे पास आ गये और बोले, “कि बताइये, क्या काम है?” मैंनें पूरी घटना बतायी और फीस भी आगे बढ़ा दी। तो प्राचार्य महोदय बोले, “आपने मुझे पहचाना नहीं शायद।” मैंनें कहा, “जी सच में नहीं पहचाना।” वो बोले, “पवार सर एक दुर्घटना हुयी थी और आप एक लड़के को लेकर अस्पताल आये थे, जो खून से लथपथ था।” तब मैं अस्पताल में ही था, आपसे बात भी हुयी थी वो मेरे रिश्तेदार का ही लड़का था जो आपके त्वरित काम से जान जाने से बच गया था।”

मुझे कुछ-कुछ ध्यान आया और मैंनें कहा, “सर मेरी ड्यूटी है वो तो।” तो वो बोले, “ये लड़का 11वी में है और इसकी बहन 6वी में। मैं दोनों की स्कॉलरशिप प्रारंभ करवा दूंगा और आप निश्चित रहिये फीस की वजह से इसकी पढ़ाई नहीं रूकेगी।” मैंनें हाथ जोड़कर प्राचार्य महोदय को धन्यवाद कहा और उन्होनें मुस्कुरा के मेरे हाथ पकड़ लिये। फिर मैंनें उस बच्चे से कहा कि बेटा, “कोई दिक्कत हो तो मुझे बताना जरूर मैं घैला चौकी पर ही मिलूंगा” और मैं चला आया।


२) मेरी लोहड़ी

लोहड़ी के बारे में ज्यादा जानकारी तो नहीं है। मगर फिर भी इस त्यौहार को मैं अपने हिन्दु धर्म के त्यौहारों के बराबर ही जानता हूँ बचपन से। इसका एक कारण ये भी है कि ये त्यौहार मकर संक्रांति से एक दिन पहले आता है तो हमें हमेशा ही दो छुट्टियाँ मिल जाती थी विद्यालय से। इसी के साथ ये साल की पहली छुट्टी होती थी तो अलग ही मजा होता था और मौसम में गजब की ठण्डक तो वो मौसमी अनुभव और घरवालों के साथ चाय पीना, वो पल आज भी बखूबी याद हैं।

लोहड़ी इसलिये भी याद आ जाती है या ये कहूँ कि मुझे जिन्दगीभर याद रहेगी क्योंकि एक वक्त में हमारे पास आठ-दस भैंसें और गाय हुआ थी। लोग हमारे यहाँ से दूध लेकर जाया करते थे। उन्हीं लोगों में एक सरदार अंकल भी थे वो किसी सेठ के यहाँ नौकरी करते थे। जब से वो आगरा आये थे। सबसे पहले हमारे यहाँ से ही दूध लेना उन्होनें प्रारंभ किया था। मैंनें जब होश सम्हाला तब से उन्हें हमारे यहाँ ही देखा था। तो उनसे हमारे पारिवारिक रिश्ते से थे। वो सुबह की चाय हमारे यहाँ ही पीते थे। लाजवाब व्यक्ति थे। बड़ी मजेदार बातें करतें थे और साथ ही हमेशा सकारात्मक बातें करते थे। जब वो पंजाब से आगरा आये थे, बड़े मुश्किल हालात रहे थे। ये वही बताते थे। बाद में हमने उनकी तरक्की को देखा। मगर वो कभी बदले नहीं। उनका वही असाधारण स्वभाव और सरल व्यक्तित्व नायाब था।

मैंनें कई बार उनसे बात की थी। वो हमेशा ही मेहनत और लगन की बात करते थे। लगातार 20-22 साल उनकी हर सुबह हमारे यहाँ ही होती थी और हम भी उनका इन्तजार करते थे। हजारों बातें होती और आग पर तापते हुये खूब किस्से बनाये जाते व बताये जाते। क्या वक्त था वो। वो अंकल मकर संक्रांति की सुबह आते, एक मिठाई का पैकेट और मूंगफली लाते। मिठाई के पैकेट में भी गजक, मक्का के फूले, रेबड़ी आदि होता। इस तरह उन अंकल के जरिये में लोहड़ी से जुड़ा रहा। बाद में स्नातक में गुरप्रीत, परास्नातक में सुरेन्दर, नौकरी में कुलजीत आदि दोस्त मिल गये और लोहड़ी की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान आज भी जारी है।

कालान्तर में जब मैं नौकरी पर आ गया तो पापा ने भैंसें बेच दी और एक गाय रखी बस घर के लिये। सरदार अंकल गाय का भी दूध ले जाते थे। कहते थे, “पवार साहब, जब तक आप अपना इन्तजाम करोगे, हमारे भी करोगे।” पापा कहते, “अगले महीने ये गाय भी बेच दूंगा, तब कहाँ से लोगे?” तो वो अंकल कहते, “आप कहीं से तो लोगे, मैं भी वहीं से लूंगा।” दोनों ही हसते फिर। पिछले साल मम्मी का फोन आया और उन्होनें बताया की सरदार अंकल नहीं रहे। मुझे अपने अतीत और लोहड़ी के सपनों के वाहक का अध्याय खत्म सा दिखा और एक पल के लिये वो अंकल और उनकी बातें आँखों में घूम गयी। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं। जो लोग हमने जवान देखे होते हैं, उन्हें बूढ़ा होते देखते हैं और एक दिन वो चले जाते हैं। हमें बस ये लगता है कि हम कम ही वक्त बीता पाये उनके साथ।

लेखक: सुमित सिंह पवार “पवार”

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