कोरोना संबंधित लघुकथाएँ

इमरान संभलशाही

रिश्ते

अपने अपने गाँव लौटने के लिए लोगो द्वारा सभी सामान सहेजे जा रहे थे। सभी लोगो मे जल्दी जल्दी सामान बटोरने की ललक साफ देखी जा रही थी। एक तरफ जुम्मन मियाँ अलग बौखलाहट में चिल्लाए पड़े थे तो दूसरी तरफ सीताराम पंडित अलग ही सुर अलापे जा रहे थे कि जल्दी करो भाई, नही तो सवारी छुट जाएगी। यही के यहीं रह जाएंगे और भूखा मर जाएंगे। बेटा-बेटो, भाई-बहन, भय्या-भाभी, सास-ससुर, चाचा-चाची, भांजा-भतीजा, मामा-मामी कोई भी नही छूटा था, जो अपने अपने गांव जाने के लिए न तड़प रहे हो। जो शहर की ज़मीन कल स्वर्ग के समान थी, आज उसी शहर की ज़मीन नरक से बत्तर हो चुकी थी। सभी आंखों में बेबसी के आंसू थे और दिल ख्यालों में गमज़दा। गाल मुरझाए हुए थे। नहाना तो छोड़िए, मुंह धुले ही छत्तीस घण्टे से अधिक हो गए थे। मुंह तब न धुलते, जब किसी पहर किसी को नींद आयी होती, यहां तो सभी के भीतर अतिशीघ्र वतन लौटने की केवल जिजिविषा थी। न लौटेंगे तो यहां भूखे मर जायेंगे, सरकार की मदद उन तक कहाँ पहुच पाई थी? न धंधा चालू था और न ही किसी की दुकानें ही चल रही थी, खुले भी कैसे, कोई सामान खरीदने वाला हो तब न, जिन जिन लोगो की नौकरियां थी, या तो सब निकाल दिए गए थे या फैक्ट्री ही उनकी बन्द हो गयी थी। न किसी के जेब मे पैसे थे और न ही किसी के पास खाने को सामान। तैयारी मुकम्मल हो गयी थी लेकिन साधन का पता नही था कि कैसे? कोई अपने अपने गांव लौटे, पैदल जाए, साइकिल से जाएं या कोई ट्रक पकड़कर जाएं, कुछ किसी को नही समझ आ रहा था। आंखों के सामने अंधेरा ही अंधेरा छाया हुआ था सभी के.

कोरोना के इस महामारी काल मे लॉकडाउन के दौरान कल्लू चाचा अपने फटे कपड़े व मटमैले बदन में सड़क किनारे भाड़े के रिक्शे पर बैठे-बैठे लगातार दाढ़ी को खुजलाए जा रहे थे। सभी को तैयारियां करते देखकर सूखे ओठों संग अपना मन मसोसे जा रहे थे। आंखें धंसी हुई रोये जा रही थी। कल्लू चाचा का जीवन दिहाड़ी मजदूरों की तरह ही गुज़रता था। उनका अपना अलग ही प्रकार का प्राकृतिक परिवार था, जिसमें शेरू, चेरू व पप्पी तीन थे। तीनो कल्लू चाचा के साथ ही खाना खाते व दुम हिलाते व म्याऊं म्याऊं करते रहते थे। रिक्शा खींच लेने के बाद जो भी कमाई करते और उसी कमाई से जो कुछ भी खाने की चीज़ें खरीदकर पकाते, खाने के हिस्से में दो प्यारे कुत्ते और एक प्यारी सी बिल्ली का हिस्सा शामिल रहता था और साथ साथ ही हमेशा खाते, अकेले तो कभी भी वो खाए ही नही थे।

कल्लू चाचा के सामने से ही लोग धीरे धीरे बोरिया बिस्तर लादे अपने अपने सदस्यों के साथ पैदल, साइकिल व रिक्शा सहारे निकल रहे थे। कल्लू चाचा को भी जाना था अपने गांव, यहां शहर भर में रिक्शे की पहिया थम चुकी थी, कोई कमाई नही रह गयी थी, कल्लू चाचा सोच रहे थे कि जाएं या न जाएं। अंततः कल्लू चाचा भी अपनी लाठी व गट्ठर लिए अचानक से उठे और भीड़ के संग चल दिये। भूखे प्यासे कल्लू चाचा को कोई तैयारी नही करनी पड़ी थी, उनके पास कुछ था ही नही, तो तैयारी करते भी किस चीज़ की।

कल्लू चाचा अब नंगे पांव सरपट लाठी सहारे भागे चले जा रहे थे भीड़ के साथ, तीन किमी पैदल चल लेने के बाद भीड़ में से अचानक से पीछे हो लिए और धड़ाम से ज़मीन पर पड़ गए। अपने सर पर हाथ रखते हुए, किसी गहन अफसोस में डूब गए। भीड़ जब उनसे काफी आगे निकल चुकी थी तो अब कल्लू चाचा अकेले पड़ गए थे। कुछ ही समय बाद अचानक से उठे और वापस शहर की तरफ तेजी से भागने लगे। चलते रहे और चलते रहे, चलते चलते वही रुके, जहां से अपने सफर का आगाज़ किये थे। कल्लू चाचा जैसे ही वहां पहुचे- तीनो शेरू, चेरू व पप्पी पास आकर उनका हाथ पैर चूमने चाटने लगे थे, जैसे उनको भरोसा रहा हो कि चाचा यही कही थे, वो कही गए नही थे।

कल्लू चाचा रुंधे गले से अपने परिवार के तीनो सदस्यों के पीठ पर हाथ फेरते हुए, बस इतना ही बड़बड़ाये थे कि बेटा! तुम सबको छोड़कर हम कहीं न जाएंगे, भले ही यही हम भूखे प्यासे दम तोड़ दें। आखिर हमारा और तुम्हारा भी तो जन्मों जन्म के रिश्ते है।

लेखक: इमरान संभलशाही , पोस्ट: 20MON00445


सूर्यदीप कुशवाहा 

परोपकार की सीख

अमन के पापा ने टोका, अरे यह बोरा भरकर कहां जा रहे हो? समझ में नहीं आ रहा लॉकडाउन है। अमन बोला पापा नाले के पास जो पालीथीन से झोपड़ी बना कर रहते हैं उनको राशन देने जा रहा हूं, नहीं तो बेचारे लॉकडाउन में भूखे कैसे जी सकेंगे? उनके छोटे छोटे बच्चे भी हैं। बाहर जाना जोखिम भरा है, यह सरकार का काम है। बेवजह उनकी मदद करके तुम्हें क्या मिलेगा अमन?

पापा सिर्फ सरकार के भरोसे छोड़ दें। हमारा असहायों के प्रति  कोई दायित्व नहीं है इस संकट की घड़ी में सक्षम रहकर भी अगर बेसहारा गरीबों की सहायता न कर सकूं तो इंसान का जन्म लेना व्यर्थ हो जायेगा पापा। बस सहायता करके आत्म संतोष कि सक्षम होकर उन बेचारों को बचाया। क्या आपको मेरे इस नेक कार्य को करने की खुशी नहीं है पापा?

आज तो तुमने मेरी आँखें खोल दी बेटा। चलो मैं भी राशन बाटने चलता हूं।

लेखक: सूर्यदीप कुशवाहा , पोस्ट: SWARACHIT711A


Niraj Tyagi
नीरज त्यागी

कोरोना से क्या डरना

राम और अमर बचपन के बहुत अच्छे मित्र हैं। दोनों इस वक्त दसवीं कक्षा के विद्यार्थी है। एक दूसरे से हर बात शेयर करते हैं। कोरोनावायरस संकट के समय जहां हर आदमी अपने-अपने घरों में रुका हुआ है और सिर्फ जरूरत के कामों से ही घर से बाहर जा रहा है। ऐसे दौर में भी अक्सर राम ने देखा कि अमर बिना मास्क लगाए घर से बाहर घूमता रहता है।

सब पाबन्दियों को नकारता हुआ वह अक्सर पार्क में सुबह और शाम घूमता नजर आता है।यहां तक कि अपनी रोज सुबह रनिंग करने की आदत के कारण पार्क में रोज रनिंग करने और योगा करने से भी बाज नही आ रहा है।

राम ने उसे बातों ही बातों में कई बार समझाया यार रनिंग और योगा का टाइम तो आगे बहुत मिलेगा। लेकिन इस समय थोड़ी सावधानी रखनी चाहिए और अपने घर में ही रहने की कोशिश करनी चाहिए और हो सके तो घर मे रहकर ही योगा करो।

राम ने उसे समझाया कि केवल जरूरी काम से ही बाहर निकलो। अमर बचपन से बड़बोला किस्म का लड़का है। उसने बड़े ही लापरवाही से राम को जवाब दिया और कहाँ “अरे यार कुछ नहीं होता मैं किसी से नहीं डरता। कोरोनावायरस मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला, तुम बहुत ज्यादा डरते हो।

धीरे-धीरे जब लॉक डाउन का समय समाप्त होने का समय आया तो अचानक शहर के कुछ हॉट स्पॉट जगह को सील करने की खबर आई। राम ने अब भी अमर को समझाया, यार अब तो बहुत ही सावधानी रखने की जरूरत है। माना कि हमारा एरिया सील नहीं हो रहा लेकिन हमारी कोशिश ऐसी होनी चाहिए कि उसको सील करने की नौबत ही ना आए।

फिर भी अमर ने राम की बात नही मानी उसका जवाब फिर वही था। अरे यार कुछ नहीं होता तू डरता बहुत है,जो होगा देखा जाएगा। अमर की लगातार इस तरीके की बातो से राम का भी मन को भटकने लगा।वह काफी समय से घर में पड़े-पड़े बहुत परेशान हो गया था।

उसने विचार बनाया कि वह भी अमर की तरह सुबह-सुबह घूमने जाएगा और कुछ रनिंग करने की भी कोशिश करेगा। अमर भी राम की इस बात से बहुत खुश था और शाम को दोनों ने पार्क में घूमने का विचार बनाया। सब लोग अंदर थे लेकिन दोनों पार्क में घूमने लगे।

आमतौर पर राम को घूमने फिरने और रनिंग की आदत नही थी। वह अपने शरीर पर ज्यादा ध्यान नही देता था।उसे लगा इस लॉक डाउन के समय मे वह भी अपने शरीर को काफी हद तक घूमने का आदि बना लेगा।खैर अमर पार्क में रनिंग करने लगा लेकिन क्योंकि राम को रनिंग करने की आदत नहीं थी तो उसने पार्क में धीरे धीरे चलना शुरू कर दिया।

कुछ देर बाद राम को पुलिस के गाड़ी की हॉर्न की आवाज जोर-जोर से सुनाई पड़ने लगी।राम बिना अमर की तरफ ध्यान दिए अपना धीरे-धीरे पार्क में घूम रहा था। अचानक पार्क के अंदर पुलिस वाले आ गए और ठीक राम के सामने खड़े हो गए।

राम ने चारों तरफ अमर को देखा तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उसने देखा कि अमर बहुत तेजी से भागता हुआ पार्क के बाहर निकल गया और अपने घर की तरफ भाग गया। वह अब समझ गया कि एक शेखचिल्ली की बातों में आकर आज वह फस गया है। राम खुले पार्क में पुलिस वालों के हाथों दंड स्वरूप अपनी गलती पर उठक-बैठक लगा रहा था। उसने अपने कान पकड़े और पुलिस वालों से माफी मांग कर अपने घर की तरफ चल पड़ा।

कहानी का सार
सिर्फ इतना है कि हर समय लोगों की बातों पर ध्यान नही देना चाहिए और अपना दिमाग भी लगाना चाहिए। क्योंकि कुछ लोग अगर बातों को गलत तरीके से बता रहे हैं तो जरूरी नहीं है संकट पड़ने पर वह आपका साथ देंगे। ऐसे मित्रों से कान पकड़िए और इनकी बातों में ना आने का प्रयास करें। अक्सर ऐसे शेखचिल्ली आपको अपने इर्द गिर्द काफी दिखाई देते हैं। इनसे बचने का प्रयास करें।

नीरज त्यागी

लेखक: नीरज त्यागी, पोस्ट: SWARACHIT685G


दिलाराम भारद्वाज ‘दिल’

लाकडाउन के समय

सविता एक पत्रकार की बेटी है और पापा सुबह ही कॉवेरेज को गए थे तब वो सोई थी। वो मां से कहती है मां, मुझे चाकलेट खानी है। मां ने यूं ही कह दिया पापा से फोन करके कह देते है। सविता मान गई और पापा के आने का इंतजार करती हुई खेलने लगी। पापा शाम को काफी लेट हो गए और वो मां से पूछती पापा कब आएंगे और चॉकलेट कब लाएंगे? और उसे नींद आ गई।

पापा आते ही सविता की मां से बोले कुछ खाने को दो बहुत भूख लगी है कुछ सारा दिन खाया ही नहीं और सविता को ये बातें सुनाई दी शायद और वो तभी उठ बैठी और बोली पापा! चॉकलेट लाई क्या?
पापा ने जवाब दिया ‘ बेटा बाहर लॉकडॉन है और सभी दुकाने बंद है क्यूंकि कोरोना महामारी से बचाव के लिए सब बंद है बेटा।
छोटी गुड़िया बोली आप क्यूं गए थे बजार?
पापा ने कहा- बेटा मै पत्रकार हूँ मै ये देखता हूँ की क्या, कहाँ हो रहा, कोई भूखा हो य़ा कैसे लोग रहते है और बाहर क्या हो रहा? किसी की क्या समस्या है वो सरकार तक पहुंचना व सरकार का क्या आदेश है वो लोगों तक पहुंचना मेरा काम है बेटा।
सविता बोली- पापा सरकार को बोलो मुझे चाकलेट खानी है तो पापा ने कहा बेटा उनको पहले पता है लेकिन कोरोना खत्म हो जाए तो आपको बहुत सारे चॉकलेट ले कर आऊंगा अभी बाहर जाना मना है।
गुड़िया ने कहा- तो आप को क्रोना से डर नहीं लगता? पापा बोले बेटा लगती है लेकिन मेरा काम है न बेटा,खबरें लाना व लोगों तक पहुंचाना।
सविता बाते करते करते फिर सो गई और सोने से पहले कह दिया पापा जब क्रोना भाग जाएगा न तब चॉकलेट जरूर लाना, और हां आप न कोरोना से दूर रहना।

पापा ने खाना खाया और खबरें लिखने लगे और कल की तैयारी करने लगे की रास्ते मे एक मजदूर का परिवार मीला था और कह गया साहब कल के लिए कुछ खाने का इंतजाम करना साहब छोटे बच्चे है न।
बस इसी कशमकश मे सुबह हो गई और फिर सुबह घर से कुछ राशन उन को साथ ले कर केमरा उठा कर व मास्क ले कर चल पड़े। वही रोज की लॉकडाउन की कहानी फिर शुरू।

सविता व मां घर मे ही रहती और पापा ने आज मां के बनाए मास्क लोगों मे बांटे और सविता की मां रोज घर मे मास्क बना कर पापा को देती और ऐसा सिलसिला चला रहा लॉकडाउन का।

लेखक: दिलाराम भारद्वाज ‘दिल’, पोस्ट: SWARACHIT695H

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