५ लघुकथाएँ

~ डॉ शशिवल्लभ शर्मा

आत्मनिर्भर 

बड़े गाँव के बड़े मुखिया साहब वर्षों से अपनी खुशहाल जिंदगी जी रहे थे, घर द्वार सब भंडार भरे थे, गांव के सभी किसान, नौकरपेशा, मजदूर किसी को किसी तरह की कोई परेशानी नहीं थी। अचानक गांव में बड़ा भारी संकट आ गया। दूसरे गावँ में से पूरे गाँव में एक बीमारी फैल जाती है, जिसमें कई बच्चे, बूढे अधमरे हो जाते हैं, बहुत लोग मर जाते हैं। इस भीषण संकट में रोज किसी न किसी का शव उठाना पड़ता है। चैत की खड़ी फसल खेत में ही सूखकर बिखर गई। कुछ ही दिनों में खाने की समस्या होने लगी। लगातार गिरते मरते ग्रामीण एक दूसरे के आँसू देखकर रोते जा रहे हैं। सूखी लकड़ियों का टोटा होने लगा। बचे खुचे हरे पेड़ भी खत्म हो गए।

एक दिन अचानक गांव के मुखिया प्रकट होते हैं औऱ अपनी चौपाल पर सबको बुलाकर कहते हैं, मेरे प्यारे गाँव वालों, मुझे पता है इस बीमारी ने सबको रुलाया है, कई परिवारों ने अपने स्वजनों को खोया है। अब आप चिंता मत करो, हम आने वाली बरसात में नहर से अपने गांव तक पानी लाएंगे। उच्च कोटि के अनाज के बीज लेकर आयंगे। हम आने वाले दिनों में एक फैक्ट्री लगाएंगे, जिसमें गांव के जवान लड़के नौकरी करेंगे।किसी को अब दूसरे के भरोशे नहीं रहना पड़ेगा। हमारी बैंकों में जो धन जमा है, उसका दस प्रतिशत हम उन सभी को
बांटेगे, जो गरीब हैं। सभी अपने घरों में उन बस्तुओ को बनाएंगे जो शहरों से आती हैं। हम अपने गांव को आत्मनिर्भर बनाएँगे।

तभी एक किसान ने खड़े होकर अपने गमछे से आँसू पौंछते हुए पूछा, चौधरी साहब ये बता दो, गांव में जो लाशें रखीं हैं जिन्हें जलाने के लिए लकड़ी नहीं हैं, जो लोग बीमारी से, भूख से मर रहे हैं उनके लिए आप क्या कर रहे हैं? इतना सुनते ही चौधरी साहब अपने पालतू पहलवानों को इशारा करते हैं। तभी चार पहलवान खड़े हुए और उसे उठाकर ले गए औऱ गाँव के बाहर एक अंधे कुए में फेंक आये।

लेखक: डॉ शशिवल्लभ शर्मा, पोस्ट: SWARACHIT1017A


~ मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’

आहुति

लो जी चाय नाशता आ गया। हँ ..हँ…हँ…हँ…
लीजिए .. लीजिए ..अब इसे अपना ही घर समझो…. मुझे तो यह रिश्ता बहुत पसंद है।
मेरी बेटी इतनी संस्कारी है कि मेरी बात कभी नहीं टालती है। वरना आजकल की लड़कियों के नखरे …बाप रे बाप …. राजनाथ जी चाय पकड़ाते हुए बोले। क्यों रजनी की माँ?
बेला जबरन हँसते हुए सहमति देती है। सही कह रहे हो जी आप हैं ..हैं ..हैं ..

रजनी के पहले प्यार के बारे में सब कुछ जानते हुए भी वह कुछ नहीं कह पा रही थी। घर के सभी लोग खुश हैं यह देख रजनी ने दृढ़ निश्चय किया और चेहरे पर हँसी बिखेरते हुए, शीश झुकाए मुख्य हॉल में आई। सभी जैसे उसी का इन्तजार कर रहे थे।
सबको नाश्ता दो रजनी बेटा …
लो आ गई मेरी बेटी, मेरा आत्मसम्मान…, सचमुच बेटी तो घर की इज्जत होती है। पिता के ये शब्द उसके कान में गूँज रहे हैं ! क्या वह सही कर रही है? इसी पहेली में उलझी वह मौन है।

तभी द्विवेदी जी बोले- सारी बातें हो गई, बस एक बार लड़की के मुँह से हाँ सुनना चाहते हैं।
बोलो रजनी बेटा; तुम्हें रिश्ते से कोई आपत्ति तो नहीं? तुम्हें यह रिश्ता स्वीकार है?
सबकी नजरें रजनी के चेहरे पर जाकर अटक गई जो कि मौन है।
बेला का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा …कहीं रजनी …
जी! माँ की ओर देखकर रजनी इतना ही बोली और सबके चेहरे हँसी से खिल उठे।
बेला ने रोते हुए रजनी को आँचल में छुपा लिया। मेरी बच्ची …
जी! हाँ, स्वीकार है। रजनी ने पारिवारिक यज्ञ में स्वयं के प्यार की आहुति देते हुए पुन: दृढ़ संकल्प के साथ दोहराया।

लेखक: मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’, पोस्ट: SWARACHIT1017B


~ संजय रॉय

नमाज़

आज़ादी के बाद उस इलाके में कुछ काम ही नही हुआ! घुप अँधेरे में डूबा हुआ गाँव बिजली-सडक सहित कई मूल-भूत सुविधाओ से वंचित था! वर्तमान सरकार की योजना देख ग्रामीणों में ख़ुशी की लहर थी! शिलान्यास का वक्त भी आ गया!

मंच से मंत्री जी ने कहा- भाइयों-बहनों बहुप्रतीक्षित सडक का नक्शा तैयार है, बस एक बाधा है! सड़क निर्माण के बीचो-बीच एक मस्ज़िद आ गया है, इसलिए कार्य में थोड़ा विलंब हो सकता है!

तभी ग्रामीणों के समूह में बैठे जुम्मन चाचा उठ खड़े हुए और कहा-‘कब्र में पांव लटकाए बैठा हूँ’, अब देर न कीजिए नेता जी! सडकें बनने दीजिये रोशनी आने दीजिये …हम मस्ज़िद वालों को समझा लेंगे!
यह कहते हुए बुज़ुर्ग ने आगे कहा- क्यों भाइयों… हमलोग सड़क किनारे जो मैदान है वहाँ नमाज़ अता कर लेंगे ….क्या कहते हो …?
सबने हाँथ उठाकर कहा- हमसब तुम्हारें साथ हैं! तभी मंच से आवाज़ आई इस योजना का शिलान्यास जुम्मन चाचा के हांथो होगा…!

लेखक: संजय रॉय, पोस्ट: SWARACHIT1017C


~ राज शर्मा

व्यर्थ दान

दुर्गेश अपने क्षेत्रीय रियासत का सबसे बड़ा धनपति था। मज़दूरों को धनधान्य दान करता था। परन्तु ये उसका दिखावा अर्थात झूठा आडम्बर था। सिर्फ अपने अभिमान को बढ़ावा देना और अपने यश की प्रशंसा करवाने के लिए इतना सबकुछ किया करता था। एक दिन वह यात्रा पर गया। सन्ध्या के समय में जब वह वापिस अपनी हवेली की ओर आ रहा था तो उसके वाहन का पहिया खराब हो गया। रात्रि होने को कुछ ही पल शेष बचे हुए थे। अब इस स्याह में जाए तो कहां जाए। दूर पहाड़ी के आंगन में जलते हुए चूल्हे के मन्द प्रकाश से यह आभास किया कि शायद कोई रहता होगा। दुर्गेश सेठ उसी ओर चल दिया।

रात्रि को जब हीरा मज़दूर भोजन परोसा रहा था तो सेठ को भोजन कुछ खास पसन्द नहीं आया, आखिर पूछ ही बैठा- हीरा! तुम ऐसा भोजन प्रतिदिन खाते हो क्या? हीरा ने कहा- जी मालिक! यह सब आपका ही दिया हुआ है हम सब यही भक्षण करते हैं। तब सेठ दुर्गेश को आभास हुआ कि मैंने जो कुछ भी दान द्रव्य आज तक वितरण किया वह सब व्यर्थ हो गया।

सीख- आडम्बर और अभिमान से अगर आप करोड़ो सवर्ण मुद्राओं को भी दान में दे दे तो उसका कोई भी फल नहीं मिलता। यह लोक में जो भी आप दान करते हो वह संचित कर्मानुसार परलोक में व्याज सहित भोगना पड़ेगा चाहे वो पुण्य कर्म हो जय पाप कर्म। इसलिए सावधान होकर कर्म करते रहो।

लेखक: राज शर्मा, पोस्ट: SWARACHIT1017D


दशरथ प्रजापत

किसान की आत्महत्या

हल तो किसान के पास हमेशा रहता है लेकिन उसकी समस्याओं का हल नहीं निकलता है। आज विद्या का परीक्षा परिणाम आने वाला था उसके चेहरे की चमक पहले से ही उसका परिणाम बता चुकी थी। वह उछल कूद करती हुई विद्यालय पहुंची। हमेशा की तरह इस बार भी विद्या पूरी कक्षा में प्रथम स्थान पर रही। वह खुशी के साथ घर पहुंची लेकिन एक पल में उसकी सारी खुशी समाप्त हो गई उसने देखा कि घर पर बहुत सारे लोग इकट्ठा हुए हैं और रोने की जोर जोर से आवाज आ रही है। पता चला कि उसके पिताजी ने आत्महत्या कर ली।

रोती बिलखती विद्या पिताजी से लिपट कर बेहोश हो गई, दो दिन अस्पताल में रहने के बाद विद्या को घर ले जाया गया। उसने देखा कि घर पर माँ के अलावा अन्य कोई भी नहीं है। पिता की याद में विलाप करती हुई विद्या ने मां से पूछा कि पिताजी जी ने ऐसा क्यों किया। मां कुछ नहीं बोली पर दूसरे दिन विद्या ने दो-तीन बार फिर पूछा तो उसकी मां ने कहा- “यहां सब को भ्रष्टाचार व काले धन की चिंता है, लेकिन कोई भी किसान के फसल की चिंता नहीं करता है। पूरी फसल को टिड्डी ने नष्ट कर दिया था और सरकारी कर्मचारियों ने उनके अनपढ़ होने का फायदा उठाया। उन्होंने गत वर्ष पांच हजार का सरकारी लोन लिया था लेकिन उन लोगों ने उनसे अंगूठा लगाकर दस हजार ले लिए और उसमें से हमको केवल पांच हजार दिए। अभी कुछ दिन पहले वो वापस लोन लेने गए तो उनसे कहा गया कि पहले दस हजार भरो फिर लोन मिलेगा। उन्होंने इसका विरोध किया तो कागज उनके मुंह पर फेंक दिए गए सरकारी अधिकारियों के द्वारा। फिर गांव वालों से बात की लेकिन किसी ने किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं की। अंत में उनके पास कोई विकल्प नहीं था। शायद इसी कारण उन्होंने आत्महत्या जैसा क़दम उठाया।”

विद्या सब कुछ समझ गई थी। अब माँ और बेटी की किस्मत टूटी हुई माला की तरह बिखर गई।

लेखक: दशरथ प्रजापत, पोस्ट: SWARACHIT1017E


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