राजीव डोगरा ‘विमल’ जी की दस कविताएं

1) नवीन जीवन

चलो चलते हैं फिर से
जीवन की तलाश में
किस अजनबी शहर की
अनजान राहों पर।
चलो फिर से बटोरते हैं
उन ख़्वाबों को
जो टूट कर बिखर गए थे
किसी अनजान शख्स की
बिखरी हुई याद में।
चलो फिर से
उन दिलों को
धड़कना सिखाते हैं,
जो टूट कर बिखर गए थे
मरती हुई
इंसानियत को देखकर।
चलो फिर से
नवीन जीवन की
तलाश करते हुए,
मानव मे सच्ची मानवता के
भाव भरते है।


2) इंतकाम

मैं पत्थर सा हुआ
उनकी याद में,
वो तोड़ते रहे मुझे
अपने इंतकाम में,
सोचा न उन्होंने कभी
कि बीते हुए वक्त में
मैं कितना तड़पा हूँ
उनकी याद में,
बस वो जख्म देते रहे मुझे
हँसते हुए अपने इंतकाम।
मैं लेकर मिट्टी का तन
उड़ता रहा उनकी याद में
और वो बनकर बवंडर
खिलवाड़ करते रहे मुझसे
अपने ही इंतकाम में।


3) तुम में लीन

जीवन व्याधियों मुझे
काट खाने को दौड़ती रहे
मैं फिर भी तुम में लीन रहूं।

सुख की अनुभूतियां मुझे
हर पल खोजती रहे
मैं फिर भी तुम में लीन रहूं।

दसों दिशाओं में मेरे लिए
मृत्यु का अट्हास होता रहे हैं
मैं फिर भी तुम में लीन रहूं।

जीवन के अंतिम छोर में
मुक्ति का पंथ मिले न मिले हैं
मैं फिर भी तुम में लीन रहूं।

जीवन संचार में लोग मेरे लिए
भटकते रहे,मटकते रहे
मैं फिर भी तुम में लीन रहूं।

दसों दिशाओं में मेरे लिए
जीवन और मृत्यु का
हर क्षण आगाज होता रहें
मैं फिर भी तुम में लीन रहूं।


4) कभी तो

तुम ख्वाहिश हो मेरी
कभी तो मुझे मिला करो।
तुम दुआ हो मेरी
कभी तो कबूल हुआ करो।
तुम मोहब्बत हो मेरी
कभी तो पूरी हुआ करो।
तुम जहान हो मेरा
कभी तो मुझ पर
मर मिटा करो।
तुम धड़कन हो मेरी
कभी तो मेरे
दहकते दिल में धड़का करो।
तुम सांस हो मेरी
कभी तो जीने की
ख्वाहिश से
मुझ में आया करो।
तुम इश्क हो मेरा
कभी तो तुम
मोहब्बत के बहाने
मेरे शहर में आया करो।
तुम चाहत हो मेरी
कभी तो मेरे
अनाहत द्वार को छुआ करो।


5) कालकूट

ओड़कर सनातन तन को
कहाँ तक जाओगे,
मिट जाए सब भ्रम तो
एक दिन तुमको भी पा जाएंगे।
रहा अगर जात-पात का
यह भ्रम मन में तो
जिंदा ही अपने बुरे कर्मों से
जल जाओगे।
और अपनी बुरी करतूतों को
कभी न मिट्टी में
दफन कर पाओगे।
सोच लो समझ लो
करना क्या है
आखिर तुम को।
असत्य के साथ जीना है या
सत्य के साथ मरना है।
मगर तुमको अब भी
कुछ नहीं पता तो
तुम कालकूट के विषभरे
सर्प के दांतो में
ऐसे फंसे रह जाओगे।


6) द्वंद

अंधेरा बिखरा हुआ है चारों और
एक अजीब सा
सन्नाटा लिए हुए।
फिर भी
क्षितिज के किसी कोने में
रोशनी का जो एक
द्वंद सा चमक रहा है,
वो प्रतीक है
तेरे मेरे अस्तित्व का।
फिर भी वो रोशनी का
है तो एक द्वंद ही न
इसीलिए आपस में लड़ता रहता है,
अपने अस्तित्व की
गहराई को मापने के लिए।
मगर मुझे जाना होगा तुमको
पहचानना होगा खुद को
इस द्वंद से बाहर निकलने के लिए।


7) बेजुबान इश्क

खूबसूरती सिर्फ
जिस्म में ही नहीं,
दिल में भी होती है।
जरा ओढ़ कर देखना
मेरी हस्ती की मिटी हुई,
राख को
अपने सीने पर।
दिख जाएगी तुम्हें
वो मोहब्बत
जो दिखी नहीं
कभी तुम्हें
मेरे सीने में धड़कते दिल में।
तुम्हें लगता है अगर
चाहने वाले बहुत हैं तुम्हारे
तो आने दो जरा
झुर्रियों को
अपने चेहरे पर
तब दिख जाएगा
तुम्हें भी
कितने दिल लगाते हैं तुमसे
और कितने गले लगाते हैं
तुमकों अपने सीने से।


8) ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं

ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
कब आती हो और
कब चली जाती हो,
लोग सोचते हैं शायद
किसी का कसूर होगा,
मगर आती हो तो
हज़ारो बेकसूरों को भी
अपने साथ ले जाती हो।
कोई तड़फता है
अपनों लिए
कोई रोता है,
औरों के लिए
पर तुम छोड़ती नहीं
किसी को भी
अपने साथ ले जाने को।
जब मरता है कोई एक
तो अफ़सोस-ऐ-आलम
कहते है सब
पर जब मरते है हज़ारों
तो ख़ौफ़-ऐ- क़यामत
कहते हैं सब।
तू भी कभी
तड़फती रूहों को
अपने गले लगाए,
ज़रा रोए कर
मरते हुए किसी चेहरें को
खिल-खिला कर
ज़रा हँसाए कर।
मानता हूँ की ख़ौफ़
तेरे रोम-रोम में बसा हैं
फिर भी किसी मरते हुए
इंसा के माथे को चूम
ज़रा-ज़रा सा मुस्काया कर।
ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
कब आती हो और
कब चली जाती हो।


9) यादों के संग

तेरी राहों का अन्वेषी हूं,
अकेला ही
फिरता रहता हूँ,
चलता रहता हूँ।
कभी उधर कभी इधर
तेरी यादों को ले संग।

सोया रहता हूँ
खुद को समेटे हुए,
खुले आसमान के तले
तेरी यादों को ले संग।
कोई पूछता है तो
बोल देता हूँ,
टूट कर बिखर गया हूँ
तेरे दिखाए हुए
ख्वाबों संग।

तेरी राहों का पहरी हूँ
बैठा रहता हूँ,
जमीन पर
बिछी हुई,
मिट्टी को ओढ़ कर।
कोई पूछता है तो
बोल देता हूँ,
राख हो गया हूँ
तेरे दिखाए हुए
अफसानो के संग।


10) ईश्वर की आवाज

जो आया मेरे दर पर
बस कुछ न कुछ
मांगने आया।
पर कभी मांगा न मुझे
न मांगा मेरा
प्रेम तत्व मुझसे।
बस हताश रहा
मुक्ति के लिए,
और परेशान रहा
अपनी इच्छाओं के लिए।
बस ढूंढता रहा
लोगों में कमियां
न तलाशा की उनकी
आत्मा में मेरी अभिव्यक्ति।
अपनी घर की
चारदीवारी की तरह
मुझे भी बांटता रहा,
कभी मंदिर,कभी मस्जिद
कभी गिरजाघर के रूप में।


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